कब तक पुरुषों की बलि चढ़ती रहेगी?
“मेरे माँ-बाप को मत छूना…” – ये आखिरी शब्द कहकर मानव शर्मा ने खुद को फांसी लगा ली। पत्नी की प्रताड़ना से तंग आकर उसने अपनी जिंदगी खत्म कर ली, लेकिन सवाल यही है कि आखिर कब तक पुरुष इस तरह अपनी जान देते रहेंगे?
मानव शर्मा की कहानी कोई अकेली नहीं है। देशभर में हजारों पुरुष दहेज उत्पीड़न, घरेलू हिंसा और झूठे मुकदमों के चलते मानसिक तनाव में जी रहे हैं। 498A जैसे कानून, जो कभी महिलाओं की सुरक्षा के लिए बनाए गए थे, आज कुछ महिलाओं द्वारा एक हथियार की तरह इस्तेमाल किए जा रहे हैं।
क्या आत्महत्या से कानून बदल जाएगा?
मानव की मौत के बावजूद उसके माता-पिता पर दर्ज FIR नहीं हटेगी। कानून अपनी जगह रहेगा, लेकिन उसका परिवार अब अकेला पड़ गया है। उसकी पत्नी, जिसने उसे प्रताड़ित किया, शायद अब भी आजाद घूम रही होगी।
ये कैसा न्याय है?
- अगर कोई पुरुष उत्पीड़न की शिकायत करे, तो उसे गंभीरता से क्यों नहीं लिया जाता?
- महिलाओं के अधिकारों के नाम पर पुरुषों का जीवन क्यों बर्बाद किया जा रहा है?
- सुप्रीम कोर्ट और सरकार कब तक चुप रहेंगे?
पुरुषों के अधिकारों की अनदेखी कब तक?
आज समाज में यह धारणा बन चुकी है कि सिर्फ महिलाएं ही पीड़ित हो सकती हैं, पुरुष नहीं। लेकिन मानव शर्मा जैसे हजारों मामले बताते हैं कि यह सच नहीं है।
अगर पुरुषों ने अपने अधिकारों के लिए आवाज़ नहीं उठाई, तो कुछ स्वार्थी और गलत नीयत वाली महिलाएं पूरे सामाजिक तंत्र को खोखला कर देंगी।
क्या हमें बदलाव की जरूरत है?
अगर हम वाकई न्यायसंगत समाज चाहते हैं, तो हमें यह स्वीकार करना होगा कि पुरुष भी पीड़ित हो सकते हैं। उनके लिए भी सुरक्षा और न्याय की जरूरत है।
अब समय आ गया है कि कानून का दुरुपयोग रोका जाए और निर्दोष पुरुषों को न्याय मिले। वरना मानव शर्मा जैसे और भी लोग इस अन्याय का शिकार होते रहेंगे।